Wednesday 27 July 2016

दो साये.....

पक्की सडकें हो गयी है जब से पुरानी गलियों से अब कोई गुज़रता नहीं
वक़्त भी आखिर वक़्त है न जाने क्यू यूँ तन्हा गुज़रता नहीं
दो साये अब भी उस पुरानी हवेली में दिखाई देते है
कभी मिलकर बतियाया करते है
तो कभी दीवारों से गुफ़्तगू हुआ करती है उनकी

और भी था  कभी पर उसको अब सुध लेने को वक़्त नहीं
पर उन्हें तब भी उसी की ख़ुशी में हँसने और  और गम में अश्क बहाने की आदत सी थी।
और बदस्तूर सिलसिला अब भी यूँही चलता रहता है
नज़र धुंदली सी हो गई है भले पर वो
वो उम्मीद का चराग भुजता नहीं
आहट होती है जब कभी हवा से
तो उम्मीद हरी हो जाती है
और लबो पे वही नाम आता है
आ गया तू बड़ी  देर की तूने
पर हवा कँहा वो जवाब दे पाती है दर्द ठहर सा जाता है रुख़्सत कभी होता नहीं
पक्की सड़कें हो गयी है जब से
पुरानी  गलियों से अब कोई गुज़रता नहीं

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